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सोमवार, 2 दिसंबर 2013

आरज़ू होती नहीं ...

जश्ने-जिस्मां  की  किसी  दम  जुस्तजू  होती  नहीं
ख़ाक   दिल    में    रौशनी-ए-आरज़ू     होती  नहीं

यूं  बहारें   इस  शहर  में    मुस्तक़िल  रहने  लगीं
क्यूं   मगर    बादे-सबा   में    रंगो-बू    होती  नहीं

अश्कबारी  का    इबादत  से    कोई    रिश्त:  नहीं
आबे-नमकीं  से    मुसलमां  की   वुज़ू  होती  नहीं

लो  तुम्हारी  ही  सही  हम  भी  मुसलमां  हो  गए
अब  न  कहियो    के:  हमारी   आरज़ू  होती  नहीं

क्या  मुअज़्ज़िन  सो  गया  है  ख़ुम्र  पी  के  दैर  में
जो  जुहर  तक   भी    सदा-ए-अल्लहू   होती  नहीं

देख  ली     हमने   इबादत  आपकी  भी   शैख़  जी
जिस्म  सज्दे  में  पड़ा  है     रू:    निगू  होती  नहीं

जब  तलक  थे  आसमां  पे  रोज़  करते  थे  कलाम
सामने   बैठे   हैं   अब   वो:    गुफ़्तगू     होती  नहीं  !

                                                                      (1996-'13)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जश्ने-जिस्मां: शरीरोत्सव; दम: क्षण; जुस्तजू: खोज; ख़ाक: बुझा हुआ; रौशनी-ए-आरज़ू: इच्छाओं का प्रकाश; मुस्तक़िल: स्थायी रूप से; बादे-सबा: प्रभात समीर;  रंगो-बू : रंग और सुगंध; अश्कबारी: रोना-धोना;  इबादत: पूजा; आबे-नमकीं: नमकीन पानी, आंसू; मुसलमां: आस्तिक;  वुज़ू: देह-शुद्धि; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; ख़ुम्र: मद्य; दैर: मस्जिद; जुहर, जुह्र: दोपहर की नमाज़; सदा-ए-अल्लहू: ईश्वर की पुकार, अज़ान; शैख़: ढोंगी धर्म-भीरु; सज्दा:नतमस्तक  प्रणाम; रू: : आत्मा; निगू: नत, झुकी हुई; कलाम:संवाद;  गुफ़्तगू:वार्तालाप। 

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