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शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

डूबेगा ज़माना !

तरब  से  शौक़  से  ज़िंदादिली  से
कभी  गुज़रो  मेरे  दिल  की  गली से

गरेबां  चाक  कर  लें  दिल  जला  दें
मिले  आराम  शायद   काहिली  से

हमारे     साथ      डूबेगा     ज़माना
करेगा  साज़िशें  गर  बुजदिली  से

बिगड़  जाए  न  बनती  बात  अपनी
ज़रा  कह  दो  निगाहे-आजिली  से

न  रोज़ी  का  ठिकाना  है  न  घर  का
जिए  जाते  हैं  बस  दरियादिली  से

न  जाने  कब  रुकें  मंहगाईयां  ये:
परेशां  हो  गए  सब  बेकली  से

हमें  उस  मोड़  तक  पहुंचा  न  देना
के:  दुनिया  छोड़  दें  हम  बेदिली  से

रहें  वो:  साथ  तूफ़ां  में  हमारे
गुज़ारिश  है  यही  मौला  अली  से !

                                                    ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरब: प्रसन्नता; शौक़: रुचि; ज़िंदादिली: जीवंतता; गरेबां: गला; चाक करना: काटना; काहिली: अकर्मण्यता; साज़िशें: षड्यंत्र;  
गर: यदि; बुजदिली: कायरता; निगाहे-आजिली: जल्दबाज़ी करने वाली दृष्टि;रोज़ी: आजीविका;  दरियादिली: नदी-जैसा, उदार स्वभाव; 
बेकली: बेचैनी; गुज़ारिश: प्रार्थना; मौला  अली: हज़रत अली अ. स., इस्लाम के ख़लीफ़ा, एक मत से पहले और दूसरे मत से चौथे। 

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