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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

ये: दर-ए-महबूब है....

या  तो  सज्दे  में  रहो  या  सर  नहीं
ये:  दर-ए-महबूब  है,  मिम्बर  नहीं

फिर  हरम  में  सरबरहना  आ  गए
क्या  तुम्हें रुस्वाइयों  का  डर  नहीं ?

बदगुमां    यूं  भी    न  हो  तू  हुस्न  पे
हम भी दिल रखते हैं इक पत्थर नहीं

ख़ैर-मक़दम   कर    तेरे  मेहमान  हैं
तोहफ़:-ए-गुल  लाए  हैं,  ख़ंजर  नहीं

किस  तरह    ये:  दोस्ती    आगे  बढ़े
मैं   शहंशह    और   तू    शायर  नहीं

असलहों    के     रू-ब-रू    ईमान    है
जिस्म  पे    मेरे   जिरह बख़्तर  नहीं

अर्श   पे   हों   या  के:  कोह-ए-तूर  पे
वो:   हमारी     दीद   से    बाहर   नहीं

कर  लिया  ईमां  ख़ुदा  पे  कर  लिया
दे  मुझे   तस्बीह,    अब  साग़र  नहीं

हो  चुकी  मेहमां-नवाज़ी,  बस  मियां
ख़ुल्द,  ख़ाला  का  तुम्हारी  घर  नहीं !

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सज्दा: नमाज़ में सिर झुकाना; दर-ए-महबूब: प्रियतम का द्वार; मिम्बर: मस्जिद में रखा जाने वाला पत्थर जिसके सामने सिर झुकाते हैं; हरम: मस्जिद; सर बरहना: नंगे सिर, बिना टोपी लगाए; रुस्वाइयां: अपमान ( बहु .); बदगुमां: भ्रमित; ख़ैर-मक़दम: स्वागत; तोहफ़:-ए-गुल: फूलों का उपहार, गुलदस्ता; ख़ंजर: चाक़ू; असलहा: शस्त्रास्त्र; ईमान: आस्था; जिरह बख़्तर: कवच; अर्श: आकाश; कोह-ए-तूर: अंधेरे का पर्वत, मिथक के अनुसार हज़रत मूसा स . अ . के समक्ष ख़ुदा यहां प्रकट हुए थे; दीद: दृष्टि; तस्बीह: सुमिरनी; साग़र: मदिरा-पात्र;मेहमां-नवाज़ी: आतिथ्य; ख़ुल्द: स्वर्ग; ख़ाला: मौसी।


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