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शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

बढ़ रही है बेताबी

दिल   बहलना   बहुत   ज़रूरी   है
तेरा   मिलना    बहुत   ज़रूरी   है

ख़ामुशी     दूरियां     बढ़ा      देगी
बात    चलना    बहुत     ज़रूरी   है

दिन-ब-दिन  बढ़  रही  है    बेताबी
राह    मिलना     बहुत   ज़रूरी   है 

रात -  भर   पी    तेरी  निगाहों  से
अब   संभलना    बहुत   ज़रूरी   है

दर्द   सीने   में   घर    न  कर  बैठे
आहें    भरना    बहुत   ज़रूरी    है

तीरगी    रूह   तक    न  छा  जाए
दिन  निकलना    बहुत  ज़रूरी  है

अब्र-ए-दहशत हैं  के: छंटते ही नहीं
रुत    बदलना      बहुत   ज़रूरी  है।

                                  ( 31 जन . 2013)

                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तीरगी : अंधकार ; अब्र-ए-दहशत : आतंक  के  बादल 





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