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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

मेरी सफ़




मेरी  सफ़  में   खड़ा  हो ले   यहाँ काफ़ी   जगह है
दिल-ए-महबूब   इक मासूम  बच्चे  की   तरह है

तुलू होता है अन्वर  मोमिनो  रुख़सार-ए-लैला पे
हमारे जज़्बा-ए-इश्क़-ए-बुतां की   ये:  फतह   है

किसी को  उज्र क्या गर हो ख़ुदा बुत में मनाज़िर
अक़ीदत  पे   ये:  हंगामा-ए-शरिया  बे-वजह   है

मैं हिंदू हूँ तो क्यूं कर ग़ैर हूँ मुस्लिम तो क्यूं तेरा
मेरे  ईमां  पे  आख़िर किसलिए  इतनी जिरह  है

न यूं तो नब्ज़ चलती है  न दिल धड़के  है अपना
ख़याल-ए-यार भी   क्या ख़ूब  जीने की वजह  है

अगर हम हैं   तो दोनों हैं  नहीं हैं  तो न तू  न  मैं
निज़ाम-ए-ख़ल्क़  क़ायम है के दोनों में सुलह है

ख़ुदा  ग़ारत  न  कर  देता  हमें जो कुफ़्र  कहते
हमारे   हर बयां पे   इस हक़ीक़त  की  गिरह है।

                                                       (2007)

                                              -सुरेश स्वप्निल  

शब्दार्थ: सफ़: (नमाज़ पढ़ते समय लगाई जाने वाली) पंक्ति; दिल-ए-महबूब: प्रेमी/ईश्वर का हृदय; मासूम: अबोध; तुलू: उदित; 
अन्वर: सूर्य; मोमिनो: आस्थावानों; रुख़सार-ए-लैला: काली रात के गाल, प्रेमिका; जज़्बा-ए-इश्क़-ए-बुतां: मूर्त्ति-पूजा-प्रेम/ मानवीय प्रेम की भावना;  उज्र: आपत्ति; गर: यदि; बुत: मूर्त्ति; मनाज़िर: प्रकट; अक़ीदत: आस्था, धार्मिक विश्वास; हंगामा-ए-शरिया: धार्मिक विधान-वादियों का उत्पात;  बे-वजह: अकारण; ईमां: धार्मिक विश्वास, आस्था; जिरह: तर्क-वितर्क; ख़याल-ए-यार: प्रिय का चिंतन; निज़ाम-ए-ख़ल्क़: सृष्टि का विधान; क़ायम: यथावत; सुलह: संधि; ग़ारत: नष्ट; कुफ़्र: ईश्वर-विरोधी बात; बयां: निवेदन; हक़ीक़त: यथार्थ; गिरह: ग्रंथि, बंध ।


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