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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

हमराह-ए-हक़ परस्त

  ।


नासेह   की   तरह   हुस्न-फ़रामोश   नहीं  हैं
ख़ुम भर के पी चुके हैं  प'   मदहोश   नहीं  हैं 

ये:   जाम-ए-हक़ीक़ी   है    ईनाम-ए-इबादत
वैसे   हम   आदतन   शराबनोश     नहीं    हैं

हम   काबुल-ओ-बग़दाद  में   येरूशलेम   में
हमराह-ए-हक़ परस्त हैं   ख़ामोश   नहीं   हैं

हम हैं तो कायनात-ए-इश्क़ है अभी क़ायम
सर  हाथ  पे  रखते   हैं  दिल-फ़रोश  नहीं  हैं

हुस्न-ए-ख़ुदा के शहर में जलवे हैं आजकल
फिरते  हैं  सर-बरहना   नक़बपोश  नहीं  हैं।

                                                                               (5 दिसं . 2012)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नासेह: उपदेशक; हुस्न-फ़रामोश: सौंदर्य की उपेक्षा करने वाले; ख़ुम: मद्य-भाण्ड; मदहोश: मदमत्त;  जाम-ए-हक़ीक़ी: आध्यात्मिक मदिरा; ईनाम-ए-इबादत: पूजा का पुरस्कार; आदतन: प्रवृत्ति से;   शराबनोश: मदिरा पीने वाले; हमराह-ए-हक़ परस्त: न्याय  के लिए संघर्ष करने वालों के सहयात्री; कायनात-ए-इश्क़: प्रेम का संसार; दिल-फ़रोश: हृदय के व्यापारी, हृदय बेचने वाले; हुस्न-ए-ख़ुदा: ईश्वर का सौंदर्य; जलवे: दृश्य; सर-बरहना: बिना सिर ढंके, नंगे सिर; नक़बपोश: मुखावरण। 

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